शुक्रवार 3 अक्तूबर 2025 - 12:56
इमाम ए ज़माना अ.ज. की मारेफत नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं।मौलाना सैयद अली हाशिम आब्दी

हौज़ा / अमीर ए क़लाम, अमीर-ए-बयान, मौला-ए-मुत्तक़ियान अमीरुल मोमिनीन इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,हर इंसान की क़द्र व क़ीमत उसकी मारेफत के हिसाब से है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,अमीर ए क़लाम, अमीर-ए-बयान, मौला-ए-मुत्तक़ियान अमीरुल मोमिनीन इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,हर इंसान की क़द्र व क़ीमत उसकी मारेफत के हिसाब से है।

यानि जिसके पास जितनी मारेफत है उसकी उतनी ही क़द्र व क़ीमत है। अब सवाल ये उठता है कि ये मारेफ़त (पहचान) है क्या? इसका जवाब भी अहलेबैत (अ.स.) की रवायतों में मौजूद है। जैसा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:"ऐ लोगो! अल्लाह ने बंदों को सिर्फ़ इस लिए पैदा किया है कि वो उसकी मारेफत हासिल करें। (उसे पहचान लें) जब वो उसे पहचान लें तो उसकी इबादत करें और जब उसकी इबादत करें तो ग़ैर (-ए-ख़ुदा) की इबादत से बेनियाज़ हो जाएं।

एक शख़्स ने पूछा:ऐ रसूल के बेटे! अल्लाह की मारेफत (पहचान) क्या है?तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया:हर दौर के लोगों के लिए उस दौर के इमाम की मारेफत (पहचान) है जिसकी इताअत (फ़रमांबरदारी) उन पर लाज़िम है।" (इललुश-शरायअ ज1, स9)

इन दोनों हदीसों से साफ़ होता है कि ग़ैबत-ए-कुबरा के ज़माने में इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) बेहद ज़रूरी है। क्योंकि जिसे इमाम-ए-वक़्त की मारेफत नहीं उसे अल्लाह की मारेफत नहीं, और जिसे अल्लाह की मारेफत नहीं वो अल्लाह की इबादत नहीं कर सकता। ऐसा इंसान ग़ैर-ख़ुदा से बेनियाज़ और बेज़ार भी नहीं हो सकता और ऐसे इंसान की न तो कोई क़द्र व क़ीमत है और न ही कोई अहमियत है।

चूंकि इमामत का अकीदा सिर्फ़ दुनिया में ही काम नहीं आता बल्कि आख़ेरत में भी काम आएगा। अगर किसी का अक़ीदा ए इमामत सही नहीं है, यानी उसे इमाम-ए-वक़्त की पहचान नहीं है तो वो दुनिया में भी घाटा उठाएगा और आख़ेरत में भी घाटा उठेगा।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया:
"लोगों पर तीन चीज़ें लाज़िम हैं: इमामों की पहचान, उनके सामने तस्लीम हो जाना (सर झुका देना) और जिस मसअले में इख़्तिलाफ़ हो उसे उन्हीं के हवाले करना।"  (वसाइलुश-शिया, ज27, स67)

इसी तरह रवायत है कि:
"जिसने चार चीज़ों में शक किया उसने अल्लाह की सारी नाज़िल की हुई चीज़ों का इंकार किया। इनमें से एक है हर दौर के इमाम की पहचान है, कि ख़ुद इमाम को उनके सिफ़ात (गुण) के साथ पहचाने।" (बिहारुल-अनवार, ज69, स135)

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से रवायत है कि रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया:
"जिसने मेरे बेटे क़ायेम (अ.ज.) का उसकी ग़ैबत के वक़्त में इंकार किया तो वो जाहिलियत की मौत मरा।" (सदूक़, ज2, स412)

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से ही रवायत है:
"जो शख़्स ऐसी हालत में रात गुज़ारे कि अपने दौर के इमाम को न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।" (नोमानी, स127)

यानि अगर किसी के पास इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) नहीं है तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है और ऐसे शख़्स का आख़ेरत में घाटा ही घाटा है। दुनिया में भी उसका नुक़सान होगा, क्योंकि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) का इंकार सिर्फ़ उनका इंकार नहीं बल्कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) का इंकार है। जैसा कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया: "जिसने मेरे बेटे क़ायेम (अ.ज.) का इंकार किया उसने मेरा इंकार किया।" (कमालुद्दीन, ज2, स412)

यानि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) का मुंकिर रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) का मुंकिर है। और जो रसूल का इंकार करे वो इस्लाम के दायरे में नहीं है। उस पर इस्लाम के अहकाम लागू नहीं होंगे! ऐसे इंसान का ज़ाहिर भी नापाक है और बातिन भी।

इसलिए ज़रूरी है कि इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) हासिल की जाए ताकि ईमान और इस्लाम बाक़ी रह सके।

मारेफ़त-ए-इमाम के बारे में रवायतें बहुत हैं जिनमें से एक यह है कि हिशाम बिन सालिम ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से रवायत की कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया: "क़ायम मेरी औलाद में से है। उसका नाम मेरा नाम होगा और उसकी कुन्नियत मेरी कुन्नियत होगी।

वो शक्ल व सूरत और रंग-रूप में मेरे जैसा होगा। महदी मेरी सुन्नत के साथ ज़हूर करेगा, लोगों को मेरी मिल्लत और शरीअत की तरफ़ बुलाएगा और उन्हें किताबुल्लाह (क़ुरआन) की तरफ़ दावत देगा। जिसने उसकी इताअत की उसने मेरी इताअत की और जिसने उसकी नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की।

जिसने उसकी ग़ैबत का इंकार किया उसने मेरा इंकार किया, जिसने उसे झुटलाया उसने मुझे झुटलाया और जिसने उसकी तस्दीक़ की उसने मेरी तस्दीक़ की। मैं अल्लाह के सामने उन लोगों की शिकायत करूंगा जो उसके बारे में मेरी कही बातों को झुटलाएँगे और मेरी उम्मत को उसके रास्ते से भटकाएँगे। और जल्द ही ज़ालिम अपने अंजाम को देख लेंगे।" (कमालुद्दीन, ज2, स411)

इस हदीस से साफ़ होता है कि जो भी इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) के बारे में कोताही करेगा, इंकार करेगा, उनके बारे में हदीस-ए-नबवी का इंकार करेगा, लोगों को उनके रास्ते से हटाएगा और गुमराही का रास्ता दिखाएगा, वो ज़ालिमों में शामिल होगा।

और कुरआन के मुताबिक़ ज़ालिम न तो लायक़-ए-हिदायत हैं और न ही क़ाबिल-ए-क़ियादत। उनका ठिकाना जहन्नम है। जहन्नमियों की न कोई क़द्र व क़ीमत हैं और न ही कोई अहमियत। इसलिए ये साबित होता है कि अगर इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) की मारेफत (पहचान) नहीं तो कोई क़द्र व क़ीमत नहीं।

टैग्स

आपकी टिप्पणी

You are replying to: .
captcha